पहाड़ों की चट्टाने तोड़
घरौदों का सृजन करती |
फौलादी चट्टान तोड़
वह आगे बढ़ती।
औलाद बांध पीठ पर अपने,
दो जुन की रोटी जुटाती आली।
श्रम की बूंदे बिखेरती आली ।
ऊंची इमारतें बनाती प्यारी।
माथे का पसीना यूं आंचल से सुखाती आली ,
मानो सरोवर में डुबकी लगा ली आली।।
पीठ पर जलावन बांध,
आड़ी तिरछी पगडंडियों से गुजरती आली।
पत्थर लाद तगाड़ी ढोती औरत,
हर रोज हाइवे बनाती औरत ।
सब के लिए इमारत बनाती आली,
खुद खुले आसमान में रातें गुजारती आली।
राह चलते साग भाजी खरीदती औरत,
मोल भाव कर दो पैसे जोड़ती औरत।
शिशु बांध पीठ पर अपने,
नंगे पांव घर लौटती औरत।
भोजन थाल में परोस देती सबको।
खुद हाथ में निवाला ले निगलती औरत।
तृप्त भाव से निवाला खा कर
लो तृप्त हो गई मेरी आली।
आंचल साड़ी की फैला धरती पर
जिगर के टुकड़े को सुलाती आली।
वात्सल्य में भीगी ओढ़ नीद की चादर,
हां नीद में डूबी है अब मेरी आली।
भोर के राजा ने दे दी ,
अपनी ऊर्जा सारी।
लो निकल पड़ी वह औरत आली।
जुटाने दो जुन की रोटी न्यारी।
हां जुटाने दो जुन की रोटी आली ।।
-अनुपमा उपाध्याय त्रिपाठी
* we do not own the Illustration
Hirday ko chhoo Jane vali kavita he.aap aise hi likhti rahe.doosron ke dard ko bayan karti rahe.
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जवाब देंहटाएंAap viewers ke हृदय स्पर्शी comments se लेखनी को शक्ति मिलती है.
😊😊Thankyou So much🙏🙏