मां ने सूखी–सी रोटी,
दी थी मुझको खाने को |
थोड़ा सा पानी देकर,
बोली बंकर में छुप जाने को|
वह क्या आपदा है जिसने,
सब कुछ हमसे है छीन लिया|
मां को, हम को, तुमको,
बंकर की शरण में छोड़ दिया|
तनया की बातें सुनकर,
आंसू की धारा बहती|
रुकती, थमती, डरती सी,
चीखें बाहर यूं निकलती|
खून से लथपथ धरती,
रक्तिम हो चीखें भरती|
चहुदिश मृत्यु का ताण्डव,
शर्मसार मानवता करती|
रुदन, करूणा व विभत्स तले,
एक सोच शांति-लो उभरती|
युद्ध तुम विराम लो,
युद्ध को विराम दो,
शांति दूत बन जा तू,
वीर हो बढ़े चलो|
हाथों में प्रस्ताव की,
शांति व सम्मान की,
पांव ले बढ़े चलो|
वीर हो बढ़े चलो|
रोक दो ये शत्रुता,
मेल व मिलाप लो,
सद्भाव डोर ले,
कदम को बढ़ा चलो|
शांति दूत बन जा तू ,
वीर हो बढ़े चलो|
रक्त के प्रवाह को,
विचलित करते कृत्य को,
रोक दो, विराम दो ,
वीर हो! बढ़े चलो|
रक्त रंजित भूमि को,
अश्रु के प्रवाह से,
खेद, ग्लानि बूंद की,
बारिश कर बढ़े चलो|
न तेरा है न मेरा है ,
जो भी हैं प्रकृति है,
मानवता का संदेश ले,
मानव तुम बढ़े चलो|
शान्ति दूत बन जा तू,
वीर हो! बढ़े चलो|
शांति तुम वीर हो,
हाथ में मशाल लो,
युद्ध को विराम दो,
वीर तुम बढ़े चलो||
-अनुपमा उपाध्याय त्रिपाठी
*we do not own the illustrations
Excellent 👍
जवाब देंहटाएंThanks
जवाब देंहटाएंकविता के भाव अति गंभीर और प्रशस्त हैं
जवाब देंहटाएं👍
Thanks
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जवाब देंहटाएं😊
जवाब देंहटाएंThanks
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