कोरोना
कोरोना एक परिहास नहीं,
शिवांश है ये।
युग की तब्दिलियों का उद्गार बन,
कर चुकी शंखनाद है ये।
क्षितिज के आक्रोश से,
धरा सिमट चुकी थी तू।
शिवांश धरा पर मुखर ,
कर रहा प्रतिकार ये।
धुंध आसमान का,
चीर कर बढ़ा है तू।
नील अंबर का पट,
लो फिर से संवर गई।
शिवांश धरा पर अब,
कुछ यूँ ये उतर चली।
तपन की प्यास,
जो मशीने मिटाती।
चाँदनी सी श्याह बन,
समां चुकी है रोम मे।
कालांश का शिवांश लो,
उतर चली धरा पर यूँ।
तब्दीलियाँ उद्गार बन,
पसर गई ज़मीन पर।
मशीनों की चादर,
फैला दिया यूँ पंख ने।
प्रकृति का दोहन यूँ,
करते रहे अनवरत।
शिवांश तेरी शक्ति ने,
सीख यूँ दे दी हमें।
समन्वय का सूरज,
रोशन करे जहाँ को।
मशीने भी हो,
विज्ञान भी हो।
प्रकृति भी हो,
पर संहार न हो।
प्रदूषण भी न हो,
संदूषण भी न हो।
विज्ञान हो,
पर शोषण न हो।
समझ लिए,
तेरी सीख हम।
सबक ले चले हैं हम,
करेंगे विकास हम,
प्रकृति को संभाल कर।
रक्षित कर आगे बढ़ें,
नदियों को हम साफ़ रखें।
प्रकृति के उपहार को,
समेट कर संजोकर।
अपनी ये धरोहर,
सदियों तक समेटकर।।
- -अनुपमा उपाध्याय त्रिपाठी
*we do not own the illustrations. The artwork belongs to Dhruvi Acharya(found via gallerychemould.com)
कोशिश अच्छी है
जवाब देंहटाएंThanks 😊
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