जननी
मन बोझिल हो एक ख्वाब बुना,
सपनों का सहज श्रृंगार किया।
मानों खुशियाँ संज -धंज निकली,
ये अम्बर,चाँद -सितारे भी।
रात्रि के गहन उजाले बन।
मन -थिरक -थिरक कर नृत्य करे,
संग वीणा का श्रृंगार किये।
ये अद्भुत अचला के पटलें,
ये हरी-भरी-सी सांज लिए।
उन्मुक्त भरे ये तान भरे।
अनिमेष पलक में ख्वाब सँजे,
स्नेहिल हो कर मधु -हास करे,
मन बोझिल हो एक ख्वाब बुना,
सपनों का सहज श्रृंगार किया।
इठलाती धारा यूँ बहती,
मानों ख़ुशियाँ संज -धंज निकली।
ये अंबर, चाँद -सितारे भी,
रात्रि के गहन उजाले बन।
मन थिरक -थिरक क़र नृत्य करे ,
संग वीणा का श्रृंगार किए।
ये अद्भुत अचला की पटलें,
ये हरी-भरी -सी साज़ लिए।
स्नेहिल -स्वर से जयगान करे,
अनिमेष पलक में ख्वाब पले।
मैं तेरी हूँ तूं मेरा है ,
मैं जननी हूँ,तो जनांश है तूं।
न छोड़ तूं मुझको ,साज़ हूँ मैं।
तेरी वीणा का तार हूँ मैं।
तेरी तकलीफें मैं हर लूँ ,
तूं फसल उगा,मैं समृद्ध हूँ।
तूं धारण कर, श्रम का चोला,
मैं समृद्धि का वरदान तो दूँ।।
श्रम-स्वेदन से तू सिंचित कर,
पुलकित कर मेरा अंतर्मन।
प्रफुल्लित हो तेरा अंतर्मन,
खुशियों का मैं सौगात तो दूँ।।
गेंहूँ की स्वर्णिम बाली में,
दाने-दाने हर सोने की।
न जाना तू अब छोड़ मुझे,
शहरों की उन सन्नाटो में।
जब अपने घर में रोटी है,
तो दान की रोटी क्यों खाएं।
तू बंद कर दे अब पलायन,
ये भागं-भाग की हरकत अब।
ले पैर जमाकर जम जा तूं,
अपनी पुस्तैनी माटी पर।
हाँ ! जब अपने घर में रोटी है,
तो दान की रोटी क्यों खाएं।।
प्रमुदित होकर मन मुखर चला,
अभिनन्दन कर नई सोच का अब।
हर गाँव में रोज़ी- रोटी हो,
अब सम्बल कर तूं हो तत्पर।
हर शिल्प को एक आकार मिले,
एक नाम मिले एक फेम मिले।
हर प्राणी श्रम से सिंचित हो,
स्वावलंबन का अधिकार मिले।
रोटी-कपड़ा-सम्मान मिले,
माटी में ही पहचान मिले।।
नव-नीति सजे, नवाचार मिले,
वैभव तू भी श्रृंगार करे।
सोने-चांदी के पत्तल पर,
प्राणी नव-नित मिष्ठान करे।
जहाँ बच्चे,वृद्धों की सेहत,
नव काया यौवन काठ सजे।
यौवन से भर कर ये प्राणी,
नित गान भरे रसपान करें।।
-अनुपमा उपाध्याय त्रिपाठी
*we do not own the illustration. The painting belongs to Siddharth Shingade(found via eikow.com)
Wow
जवाब देंहटाएं😊 Thanks
हटाएंThanks 😊
हटाएंअदभुत रचना👌👌
जवाब देंहटाएं🙏🙏
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर प्रस्तुति
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