कोख में पलती बिटिया
बीते युग का अंश बन
वर्तमान की छाँव हूँ
भविष्य की प्रणेता बन
मनुष्य की पहचान हूँ
अस्तित्व का अंश नहीं
अस्तित्व की नीव हूँ मैं
वर्तमान का परिणाम नहीं
वर्तमान का आधार हूँ मैं
छोटे -बड़े सुंदर- सलोने
हर व्यक्ति की माँ हूँ मैं
मारोगे तो खो दोगे
मनुष्य के वर्चस्व को
मैं ही तो जननी हूँ
पुत्री हूँ पत्नी हूँ
अपनी पहचान में मैं
सृष्टि का अस्तित्व हूँ
मेरे खातिर नहीं
स्वयंम के वर्चस्व को
बुझने मत दो
कोख के हर बेटी को
जीने दो
पलने दो
पुत्री बन
युग के धरातल पर
ढलने दो
शक्ति व् आत्मा को
धरती पर सजने दो
नव युग की चेतना को
तुम मुस्कुराने दो
आने दो बेटी को
सपनो को संजने दो
उसकी मुस्कान में
हमारी ही जय होगी
उसके विकास में ही
सत्य का उद्धघोष होगा
नन्हे हाथों में ही
हमारी नियति होगी
उसकी सांसो में
हमारी ही महक होगी
उसकी आवाज में
हमारी ही बोल होंगे
उसकी पहचान में
हमारी ही छवि होगी
आने दो सृजा को
बसने दो सृस्टि को
आने दो मृदा को
पल्ल्वित हो सृष्टि
-अनुपमा उपाध्याय त्रिपाठी
*we do not own the illustrations. Th sketch here belongs to Drishty Vashishtha found on quora.
Excellent!!
जवाब देंहटाएं����������great poem����
जवाब देंहटाएंExcellent poem
जवाब देंहटाएंBahut khoob
जवाब देंहटाएंThanks
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