प्रकृति
संकुचाते सम्भले लोचन से ,पलकें यूँ नीचे गिरतीं हैं।
मानों ओसीली बूँदे यूँ, पत्तों से यूँ फिसलते हों।
आकाश की रिमझिम बूंदें बन, धरती की ताप को हरती है।
यूँ ही तुम आंसू की बूँदे, मन के संताप को हरती हो।
लो फ़िसल गयीं ये बूँदे भी, सनकर सारे संताप हरे।
मन थिरक उठा अब होठों पर,अपनी विस्मृत मुस्कान लिए।
कुदरत तेरी इस सृजन में, न जाने कितने विस्मय हैं।
अचम्भित कर देतीं मुझको,न जाने कितने रंग भरे।
अपनी बातें खुद से कर लूँ,मन में सारे प्रश्नों को ले ।
इन प्रश्नों के उत्तर भी तो ,दे देता तूँ शब्दांश तले।
मन घुमड़-घुमड़ न जाने क्यों,घूमता -फिरता संवाद करे।
संवाद भरे इन बोलों से,यूँ रंग -मंच श्रृंगार करे।
जीवन के अद्भुत रंगों से,विस्मय अनुभूति चित्र सजे।
सोंचू मैं तो पाऊँ तुझको,फिर क्यों मैं कोई रंग भंरु?
तू सृष्टा है ,मैं कृति हूँ तेरी।
अभिलाषित स्वर अब मुखरित हो।
जीवन के चित्र सजे यूँ ही,मन थिरकन का स्पंदन हो।
रंगो की चटख रश्मियों से,जीवन का चित्र मनोरम हो।
ये जीवन तुझको है अर्पण,सौगात जो तूने दी मुझको।
मन प्रमुदित हो अभिलाषित हो,पल -पल तेरे इन रंगों से।।
-अनुपमा उपाध्याय त्रिपाठी
*we do not own the vector illustration.
Wow
जवाब देंहटाएंthank you :)
हटाएंWow,go ahead.
जवाब देंहटाएंyes, I will... thank you :)
हटाएंWoww!!
जवाब देंहटाएंthank you ^_^
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